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शुक्रवार, फ़रवरी 18, 2011

छंद

घुघरारी  बनी लट की लटिया
रंग घोरी गए जो कपोलन की
जल आनि करैं बड़री अखियाँ
तनिके भौं भरी कलोलि करैं |
मुख बीच लगी नथुनी चमकै
जिमि बारी वसंत की बेरि जगै
अधरारी बनी नग़ की मठिया
जो सोनार की शाल में सोन पकै|
बरसात की बाढ़ सी है नदिया
उफनाती लहर सी ये देह बनै
मन की मदिरा तजि प्रेम जगै
जो बनै मदमोह के भोग लगै || 
                                     दीपंकर कुमार पाण्डेय  
    (सर्वाधिकार सुरक्षित )

शुक्रवार, फ़रवरी 04, 2011

छंद-1

अभी तो कहानी सुने,
अब तो जुबानी सुनो
अपने समाज का हम
रूप दिखाएँगे |

बसन बटोरे नाही,
वदन सिकोरे नाही,
काया के बहाव को,
हम भाव से दिखायेंगे|

आज के वसन में तो
रख्खा क्या है भाई मेरे,
ऐसे ही वसन को हम,
पास नहीं लायेंगे|

फूल जैसी काया की
ये छाया तो विगारे है,
फूल जैसी काया से
हम इसको हटायेंगे ||
                           दीपंकर कुमार पाण्डेय  
(सर्वाधिकार सुरक्षित )